कई सप्ताह तक हमारी जमीन पर तंबू गाड़कर दादागिरी दिखाने वाले चीनी
आखिर अपना सामान समेट कर वापस लौट गए हैं। वे कितना पीछे लौटे हैं, इसको
लेकर अभी परस्पर विरोधी खबरें आ रही हैं। एक सूचना उनके दोनों देशों के बीच
की वास्तविक नियंत्रण रेखा पर लौट जाने की है। दूसरी रिपोर्ट कहती है कि
ड्रेगन के सशस्त्र दूत अभी सरहद के इस ओर ही हैं। जमीनी सच्चाई जो भी हो,
दोनों देशों की ओर से आधिकारिक बयान यही आए हैं कि सीमा पर कायम रही
तनातनी कूटनीतिक संवाद के सहारे दीर्घकालिक हितों के मद्देनजर समाप्त कर दी
गई है।
दिल्ली दरबार द्वारा इस कथित कामयाबी पर डींग न हांका जाना सुखद है।
पर कुछ सवाल हैं जिनके जवाब अभी तलाशे जा रहे हैं। एक बड़ा सवाल यह है कि
संकट सचमुच टल गया है या अभी कायम है? हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा
लगाते-लगाते पंडित नेहरू की पीठ में छुरा घोंपने वाले चीनियों पर आखिर
कितना भरोसा किया जा सकता है? प्रश्र यह भी है कि चीनी पीछे हटे हैं तो किस
शर्त या कीमत पर ? चीनियों को जानने-समझने वाले कह रहे हैं कि वे पीछे हटे
हैं तो तय मानिए कि कहीं न कहीं कुछ ऐसा घटित हुआ है जो भारत के लिए घाटे
का सौदा होगा।
बहरहाल,चीनी अपने तंबू उखाड़ कर पीछे हटे हैं, इस तथ्य पर विवाद नहीं
है। वे कितना पीछे गए हैं, इस पर भारत सरकार को देशवासियों के सामने सही
तथ्य बिना समय गंवाए प्रस्तुत करने चाहिएं। चीन ने पीछे हटने के लिए हमारे
कूटनीतिज्ञों या वार्ताकारों के जरिए क्या कीमत वसूली है, यह भी देश को
बताया जाना चाहिए। वरना उन कयासों को ही बल मिलेगा जिनमें आशंका जताई जा
रही है कि लद्दाख की सीमा पर हुए ताजा विवाद में भारत ने कुछ न कुछ खोया
अवश्य है। चिंताजनक बात यह है कि दिल्ली आज भी इस मसले पर रहस्यमयी-सी
चुप्पी साधे हुए है।
समस्या यह भी है कि घुसपैठ खत्म होने के बाद दोनों देशों के आधिकारिक
नुमाइंदों ने सार्वजनिक रूप से जो कुछ कहा, उस से भी बहुत कुछ साफ नहीं हो
रहा। चीनी प्रतिनिधि ने यह कह कर मौन साध लिया कि दोनों देशों के
दीर्घकालिक आर्थिक व अन्य हितों के दृष्टिगत मामले को सुलटा लिया गया है।
भारत की आधिकारिक टिप्पणी में भी स्पष्टता का अभाव है। ऐसे में विभिन्न
स्रोतों से छन छन कर आ रही सूचनाओं पर यकीन करने के सिवा कोई रास्ता नहीं।
ऐसी ही एक जानकारी यह है कि चीन की फौज को वास्तविक नियंत्रण रेखा पर
लौटाने के लिए दिल्ली दरबार ने एक बार फिर सरहद की पवित्रता और देश के
स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ की है। सैन्य सूत्र बताते है कि इस प्रक्रिया
में हमने सीमा पर अपने छह निर्माणाधीन बंकरों का काम रोक दिया है और बन
चुके एक बंकर को गिरा डाला है।
यह भी कहा जा रहा है कि लाल-सेना तो वास्तविक नियंत्रण रेखा पर ही
डटी है मगर हमने भारत तिब्बत सीमा पुलिस की अपनी आखिरी पोस्ट से नियंत्रण
रेखा तक के क्षेत्र की निगरानी का अपना अधिकार का अप्रत्यक्ष रूप चीनियों
को समर्पित कर दिया है। ऐसा इसलिए कि चीनियों को हमारे सुरक्षाबलों को वहां
निगरान रहना पच नहीं रहा था। तथ्य यह है कि चीनियों की हालिया घुसपैठ से
पूर्व यह इलाका कभी विवादास्पद नहीं माना जाता था। हमारे सुरक्षा बल
गाहे-ब-गाहे निगरानी के लिए आते रहते थे जबकि चीनियों की यहां कोई गतिविधि
नहीं थी। इस बार घुसपैठ के बाद ही सुरक्षाबलों ने उनकी घेरेबंदी के लिए
अपने तंबू निकटवर्ती इलाके में गाड़े थे। मगर घुसपैठियों को घर से निकालने
की एवज में कि हमनें सरहद से करीब तीस किलोमीटर भारतीय क्षेत्र में स्थित
अपनी चौकी पर लौटना कबूल कर लिया।
अभिप्राय यह, कि चीनी हमारे घर-आंगन में घुसे, कई रोज यहीं डेरा डाले
बैठे रहे और फिर वापस गए तो इस शर्त पर कि वे तो हमारे आंगन की चारदीवारी
से सट कर बैठेंगे और हम आंगन में कहीं भीतर की ओर चारदीवारी से दूर खुद को
समेट कर रखेंगे। इसी को तो दादागिरी कहते हैं। और इसी दादागिरी को नमन करते
हुए हमने अपने आंगन के ही एक हिस्से को अपने लिए पराया मान लिया।
सच पूछिए तो यूं पड़ोसियों के दबाव में सीमाओं को
सिकुडऩे देना हमारा राष्ट्रीय स्वभाव-संस्कार बनता जा रहा है।
गिलगित-बल्टिस्तान के परे तक जो भारत संविधान के पन्नों, अन्य दस्तावेजों व
मानचित्रों में मौजूद है, व्यवहार में उसकी सीमाएं वहां नहीं हैं। दिल्ली
को इसका भी कोई गम नहीं सालता। यही स्थिति चीन के साथ सटी सरहद को लेकर भी
है। इस मामले में न तो पड़ोसी की बदनीयती का कोई अंत नजर आता है और न ही
हमारी उदारता का।
ध्यान रहे कि लद्दाख की सीमा पर चीन से टकराव टालने के
नाम पर अपमान का घूंट पीने की यह पहली घटना नहीं है। चीनी सेना
गाहे-ब-गाहे अपनी दादागिरी के ऐसे नमूने पेश करती रहती है। और हम अपने
बड़प्पन का प्रमाण देने से नहीं चूकते। परंपरागत रूप से सुदूरवर्ती इलाकों
में अपने पशु चराने जाने वाले भारतीय चरवाहों को चीनी जब चाहे हमारे ही
इलाके में घुस कर पशुचारण से रोक देते हैं। हमारे नागरिक शिकायत करते हैं
तो भारतीय सुरक्षा बलों के अधिकारी पलट कर उन्हें ही नसीहत दे देते हैं।
ऐसी ही एक घटना का जिक्र करना यहां आवश्यक है। सीमा पर
एक गांव है देमचोक। इस गांव में हर साल स्वाधीनता दिवस मनाया जाता रहा है।
यह बात लाल-सेना को रास नहीं आ रही थी। सो पिछले साल उन्होंने इस गांव में
आकर पंद्रह अगस्त से पहले ही वहां के नागरिकों को चेतावनी दे डाली कि वे
स्वतं0त्रता दिवस न मनाएं। गांव के सरपंच ने मामला निकटवर्ती चौकी पर जाकर
आईटीबीपी अधिकारियों तक पंहुचाया। मगर नागरिकों का हौंसला बढ़ाने के बजाय
अधिकारियों ने उनसे कहा कि वे पंद्रह अगस्त न ही मनाएं तो ठीक रहेगा। इस
संबंध में ग्रामीणों और सरपंच के दावे सही हैं तो हमें एहसास हो जाना चाहिए
कि चीनी सरहद पर हमारे नागरिक कितने सुरक्षित हैं और हमारी सरहद के
पहरेदारों का रवैया कैसा है? हमारा मानना है कि सुरक्षा बलों के अधिकारियों
के इस रवैये के पीछे कहीं न कहीं दिल्ली दरबार की दृढ़ता में कमी ही छिपी
हुई है।
यूं तो इस घटना को छिटपुट ढि़लाई का दर्जा देकर नजरंदाज करने की सलाह
देने वाले भी बहुत दरियादिल बुद्धिवादी मिल जाएंगे। मगर यह हमारे
शासन-तंत्र के सरहदों को लेकर ढुलमुल,आत्मघाती और दूरगामी दुष्परिणामों को
खुला न्योता देने वाले रवैये की प्रामाणिक झलक है। हमारे रवैये के
पिलपिलेपन के कारण सरहद पर आलम यह है कि हम अपने ही इलाके में सड़क बनाते
-बनाते उन चीनियों के दबाव में ठिठक कर ठहर जाते हैं जिन्होंने पाकिस्तान
के नाजायज नियंत्रण वाले कश्मीर का एक बड़ा भारतीय भू-भाग हड़पा हुआ है। ये
वही चीनीं है जो बेधड़क पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में सड़कें व बांध बना
रहे हैं और भारत को चारों ओर से घेरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे। कभी
कभी यूं भी लगने लगता है कि चीनी महत्वाकांक्षाओं और खासकर इस इलाके में
चौधराहट की उसकी तमन्नाओं से निपटने की हमारी तैयारी ही नहीं है। पूर्व
सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह इस बारे में कहते हैं कि सेना की तैयारी और
मनोबल में तो कहीं कोई कमी नहीं। चीन को शायद ही इस बात का मुगालता हो कि
वह उन्नीस सो बासठ दोहरा सकता है। मगर पड़ोसियों को मर्यादित रखने के लिए
जिस किस्म का संकल्प व मजबूती सियासी नेतृत्व में चाहिए, वह अभी हाल नदारद
है।